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भारत के पारंपरिक वस्त्र
Traditional Textile
Introduction :-
Traditional Textile of India ( भारत के पारंपरिक वस्त्र )
1.हम जानेंगे भारत के पारंपरिक वस्त्र के बारे में भारत में पहने जाने वाले पारंपरिक वस्त्र क्या है?
2.तथा कौन-कौन तरह के वस्त्र धारण किए जाते हैं।
3.भारत की बुनकर कला के विषय के बारे में जाने
4. बुनकर कला किन किन कारणों से प्रभावित होती रही है।
5.ढाका की बुनकर कला के विषय में विस्तृत विवरण
6.पैठोणी कला तथा पटोला मे अंतर क्या है किसे कहते हैं?
7.बांधनी कला क्या है? यह किन राज्यों में तैयार की जाती है?
8.जरी की कढ़ाई किस प्रकार होती है।
9.फुलकारी वह लखनऊ की कढ़ाई में अंतर
10.भारतीय प्राचीनता को लिए हुए कितनी प्रकार की कढ़ाई भारत में प्रचलित है।
इन सभी के बारे में details में जाने :-🍒🍒
🍈जिस देश की प्राचीन सभ्यता को देखना हो उस देश के प्राचीन साहित्य व इतिहास को पढ़ने से उस देश की प्रगति व प्राचीनता का ज्ञान हो जाता है। यह भी इतिहास से ही ज्ञात होता है कि भारत की कला एवं संस्कृति की धाक दूर-दूर तक फैली हुई थी।
🍒चाहे वस्त्र निर्माण हमारा एक कुटीर उद्योग के रूप में ही था किंतु उसकी कार्य श्रेष्ठता के कारण उत्कृष्ट माना जाता था। और वैसी ही मांग भी अधिक थी। बनाने वालों के व्यक्तित्व की उनके कार्यों में उत्कृष्ट छाप होती थी। भारत में बनी वस्त्र को विदेशों में पहुंचाने का कार्य अरबी व्यापारी करते थे। धीरे-धीरे राज महलों के राजाओं का सहयोग भी बुनकरों को मिलने से उनके काम में भी सुधार हुआ। उनकी आर्थिक स्थिति भी बदली और कार्य में दिन दूनी सफाई आने से मांग भी बढ़ी।
🍒अन्य कलाओं की प्रगति के साथ-साथ वस्त्र निर्माण अपने चरमोत्कर्ष पर था। और समय-समय पर सिल्क ब्रोकेड मलमल आदि वस्त्रों का निर्माण राजघरानों की मांग पर नित्य रूप में होता था। धर्म प्रचारकों के देश विदेशों में आने जाने से उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर भारतीय वस्त्रों का प्रचलन दूर-दूर तक हो गया लोगों को तथा राजाओं को प्रसन्न करने हेतु बुनकर इन वस्त्रों में अपने व्यक्तित्व तथा अपनी अभिरुचियों को पिरो कर बनाते थे, जो बहुत सजीव से दिखाई देते थे धीरे-धीरे राजाओं व बादशाहों के सहारा देने से इन कला में दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति हुई वर्ल्डवुड के अनुसार,🍒
🌲भारत में बनाई गई कला चरमोत्कर्ष पर थी और यहां पर जरी के ब्रोकेड वस्त्र तथा सूक्ष्म मलमल के वस्त्र आदित्य होते थे।
वस्त्रों के नामकरण, प्रायः निर्माण के स्थान के आधार पर ही रखे जाते थे। जैसे बनारस तथा सूरत की ब्रोकेड, ढाका की मलमल, कश्मीर की पशमीना, गुजरात की पटोला एवं बांधनी वस्त्र, अपने रंगों सूक्ष्मता के उत्कृष्ट उदाहरण थे और आज भी वैसे ही विख्यात हैं। 🌲
🌲भारत के हर प्रांत में अपना एक विशिष्ट पहनावा है। उत्तर में कश्मीरी पहनावा तथा फिरन का, तो दक्षिण में साड़ी का, पूर्व में कोलकाता या कालीकट की विशेष साड़ियां तो पश्चिम में भी साड़ी। कहने को साड़ी एक है किंतु अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग तरह से साड़ी को बांधने की परंपरा है। पंजाब में सूट चमकीले-भड़कीले हैं, तो हरियाणा में साफा व 60 हाथ वाले घेर के लहंगे, चाहे अब वे सब सलवार कमीज वाले ही हो गए हैं। पहाड़ों में रहने वाले की पोशाकों की अपने ही अलग स्टाइल होते हैं। यह अलग-अलग प्रांतों में की पोशाके कैसे प्रभावित होती हैं।🌲
आइए जानते हैं:-
1. धार्मिक कृत्यों से प्रभावित:- 🍥🍥
हमारे बुनकर अपने-अपने धर्म से बहुत प्रभावित थें। मंदिरों की कृतियों को देखकर वहां पर पत्थर में चित्रकला को वे बुनकर अपने वस्त्रों की बुनाई में उतार कर तैयार करते थे तो देखने वाले आश्चर्य से परिपूर्ण हो जाते थे। जैसे जगन्नाथ मंदिर में श्री कृष्ण सुभद्रा व बलराम को देखकर उसी को अपनी बुनाई में बनाते थे। इस प्रकार दूर-दूर तक हमारी सभ्यता की छाप जाती थी।
2. जलवायु से प्रभावित स्थान:- 🍀🍀
शीतल स्थानों के जनजीवन को गरमाई की आवश्यकता होती थी, तो वहां पर गरमाई देने वाले गर्म व मोटे वस्त्र तथा गर्म स्थानों के जनजीवन को प्रभावित करने वाली गर्मी से बचने के लिए महीन व सूक्ष्म वस्त्र मलमल व अन्य भारी वस्त्रों को धारण करने के लिए लोग लालायित होते हैं और वही हमारी परंपराओं में शामिल हो गया। इस प्रकार लोग मौसम के अनुसार वस्त्र पहनना पसंद करते हैं और पसंद के साथ ही अपनी हैसियत के मुताबिक भी वस्त्रो को अपनाते हैं।
3. प्रकृति से प्रेरणा:-🌾🌾
Textile design के संबंध में प्रकृति एवं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। Textile design मैं अनेक प्रकार के वनस्पति को डिजाइन ओं को लोगों की रूचि के अनुसार सजाने के लिए प्रेरणा प्रकृति से ही मिलती है। जितने भी हम डिजाइन देखते हैं बनाते हैं वह सब प्रकृति से ही प्रेरणा मिलती है।
4. सामाजिक परिवेश तथा जीवन:-🐬🐬
Textile design मैं बहुत से वस्त्रों की बुनाई में लाने के लिए बुनकरों को अथाह श्रम करना होता है। जिससे उनको विशेष महत्व दिया जाता था।
5. राजकीय व अभिजात्य वर्ग द्वारा संरक्षण व पोषण:-
🌿🌿राजकीय अभिजात्य वर्ग द्वारा बुनकरों को प्रोत्साहन देने का कार्य राजमहलों में बहुत होता था जुलाह अच्छे-अच्छे वस्त्र बुनकर राजा महाराजाओं व रनिवास में दिखाने जाते थे। वहां उनसे उनको अच्छी आय वह इनाम ही मिलते थे और अधिक अच्छा काम करने की प्रेरणा भी मिलती थी। इसी प्रकार के बूते पर अनेकों कामगारों के परिवारों का पालन पोषण राजमहल ओ द्वारा हुआ करता था इस प्रकार बहुत से कारीगरों को तथा बुनकरों को पारितोषिक व प्रशासन भी मिलता था।
इस प्रकार आपने देखा कि वस्त्र उद्योग का धीरे धीरे प्रांतो, शहरों मैं कैसे-कैसे विकास होता गया। वस्त्रों का नाम उनके शहरों या कामगारों के नाम पर ही पड़ गया जैसे सिंध में बने संदालिन या कालीकट में बने कैलिको । 🌿🌿
अब हम जानेंगे भारत के परंपरागत वस्त्रों में से अधिक प्रसिद्ध वस्त्रों का विवरण उनके बारे में---
1. ढाका का मलमल :- 🐤🐤
ढाका की मलमल आज भी प्रसिद्ध है उस काल में लोगों ने तो उस मलमल को देखा वह प्रयोग किया था। किंतु आज के समय के लोग उस मलमल की कल्पना करते हैं कि मलमल का एक थान माचिस की डिब्बी में समाता था। जरा सोचिए उस काल के कारीगरो की कारीगरी। कैसे वह मलमल को बुनते होंगे। मलमल अनुकूल तापमान में ही बनाए जाती थी क्योंकि उसके धागे इतने बारिक होते थे कि गर्मी सर्दी में भी उष्मा से चटक जाते थे और केवल वर्षाकाल में ही इन्हें बुना जाता था। जबकि नमी का वातावरण होता था। तथा अंग्रेजों का यह मानना था कि कोई भी मशीन इतना महीन कपड़ा नहीं बुन सकती जितना कि वह बुनकर बुना करते थे।
2. ढाका की साड़ियां:- 🐬🐬
ढाका की साड़ियां बहुत कलात्मक होती थी। उनकी सुंदरता की नकल कोई नहीं कर पाता था। ढाका की साड़ियों को जामदानी के नाम से जानते थे। इन साड़ियों की तिरछी कढ़ाई वाली साड़ी को "तेरछा"तथा फूलों के गुच्छों वाले नमूने की साड़ियों को "पन्ना हजारे",फुलवारी साड़ी को फुलवार और बड़े-बड़े फूलों वाले को "तोरदार" कहते थे। इन साड़ियों की विशेषता पल्लू तथा बॉर्डर में ही होती थी। इनमें अनुपम प्रकृति के नमूने बेल बूटे व पंछी भी बने होते थे।
3. चंदेरी साड़ियां:--🐬🐬
ग्वालियर के चंदेर प्रांत में निर्मित यह सूक्ष्म, सुंदर व अद्भुत साड़ियां बनती थी तथा चंदेरी के नाम से आज तक प्रसिद्ध है। इन साड़ियों की विशेषताएं थी कि सोने चांदी का काम इन में सूती और रेशमी धागों के साथ होता था। कोई कोई डिजाइन ऐसे भी होते थे कि दोनों तरफ दो रंगों के होते थे आज कल गर्मियों के मौसम में अभिजात्य वर्ग द्वारा चंदेरी की साड़ियां ही अपनाई जाती है क्योंकि यह बहुत अधिक महंगी होती है।
4. बालूचरी साड़ियां:-- 🐝🐝
बालूचरी साड़ियां भी मुर्शिदाबाद के समीप बाल उच्च प्रांत में बनती थी उनका नाम बहुत अधिक सुंदर होता था हर तरह के बेल बूटे फूल सुगंधित बेगम रामायण महाभारत के पात्र आदि बहुत तरह के डिजाइन इन साड़ियों की शोभा को दोगुना करते थे आज के समय में भी बालू पर अपनी कला के लिए प्रसिद्ध है।
5. ब्रोकेड:-🐩🐩
जिन वस्त्रों में खनिज रेशों का प्रयोग कॉटन या सिल्क के रेशों के साथ किया जाता था वह ब्रोकेड कहलाते थें। इन वस्त्रों में प्राय: सिल्क या कॉटन का रेशा उल्टी और रहता था और सिर्फ सोना या चांदी का रेशा ही दिखता था। उसकी चमक आदित्य होती थी।
ब्रोकेड के वस्त्र कई प्रकार के होते हैं -
(a) कामख्वाब (Dream Like Beauty) :-🍓🍓
कामख्वाब का अर्थ "स्वप्न सदृश्य सौंदर्य" इसके नाम से इस वस्त्र का सुंदरता का अनुमान लगाया जा सकता है। इन वस्त्रों में सोने चांदी के चमकदार तारों के प्रयोग के द्वारा जब बेल बूटे बनाए जाते थे तो देखने वाले उसकी सुंदरता को देखकर दांतो तले उंगली दबा लेते थे अर्थात वस्त्र की उल्टी साइड में कॉटन सिल्क ही होता था और ऊपर की सीधी साइड में सोने चांदी से बना हुआ बेल बूटे या डिजाइन नीचे की ओर सिल्क की बीविंग इसलिए आवश्यक होती थी ताकि शरीर पर सोने-चांदी की खरोच ना लगे वस्त्र पहने पर शरीर में तकलीफ महसूस ना हो ये वस्त्र सोने चांदी के कारण बहुत महंगे ही होते थे उनका प्रयोग या तो राजघरानों में या धनिक वर्ग ही करता था स्वप्न से भी किसी अर्थ में इसका सौंदर्य कम अनुभव न हो सके, इसलिए इसका नाम कामख्वाब रखा गया इसका बहु प्रचलित नाम खीमख्वाब भी है।
(b) वफ्त अथवा पा़टथान :- 🌳🌳
इस वस्त्र से भी लहंगे, अचकन, अंगरखे आदि बनाए जाते थे। इनमें भी सिल्क धागों के साथ सोने चांदी के नमूने उकेरे जाते थे। रंगीन सिल्क धागों में सोने चांदी की चमक आदित्य होती थी।
(d) हिमरस तथा अमरस :-🐪🐪
हिमरस गर्मियों में पहना जाने वाला वस्त्र था क्योंकि यह कॉटन के साथ मिलाकर बनाया जाता था गर्मियों में ठंडक देने के उद्देश्य से ही इसको कॉटन के साथ मिलाकर बनाते थे जबकि अमरस को सिल्क के साथ बनाया जाता था इसकी बीविंग फ्लैटिगं स्टाइल में जहां सिल्क के धागे उल्टी और को रह जाते थे जिसमें वस्त्र खुला खुला सा लगता था और सोने चांदी के तारों की खरोच स्क्रीन पर नहीं लगती थी आज कल भी हैदराबाद में ऐसे वस्त्र बनते हैं किंतु अब सोने चांदी के स्थान पर सब नकली काम होते हैं इसलिए इसकी झलक पहले की तरह नहीं होती है प्लास्टिक स्टील के रेशें से बनाकर उसी से काम किए जाते हैं।
सब हमारे ब्रोकेड मैं आते हैं
अब हम जानेंगे भारत के पारंपरिक वस्त्र पितांबर के बारे में
6. पितांबर:-- 🐭🐭
पैठणी वस्त्र को ही पितांबर के नाम से जाना जाता है। पैठण जो कि हैदराबाद में स्थित है वहां बनाने के कारण ही इसको पैठणी नाम दिया गया था। यह भी सिल्क से निर्मित जालीदार वस्त्र होता था जिस पर सोने के तारों से लाइन बने होते थे आंचल वह बॉर्डर अलग तैयार करके साड़ी के साथ जोड़े जाते थे यह वस्त्र प्रायः चटक रंगों में बनाए जाते थे इन पर गमले फूल फूलदान लताएं हंस व अन्य पक्षी भी सोने के तारों से बनाए जाते थे की कलाकारी खिलती हुई दूर से ही नजर आती थी विशेष पूजा के अवसरों पर यह नारायण जी या लाल पैठणी वस्तुओं का प्रयोग राजघरानों में होता था।
7. पटोला:-- 🐣🐣
कटियावाड़ तथा गुजरात में बनाए जाने वाले वस्त्र महिलाओं में सौभाग्य सूचक माने जाते हैं। तरह-तरह के डिजाइनों तथा रंगों से युक्त यह साड़ियां आदित्य होती हैं ।
इनके बॉर्डर खूबसूरत जरी के काम के होते हैं। यह सस्ती साड़ी भी ₹2000 से शुरू होकर बहुत ऊंचे दामों तक बिकती है । यह प्रायः सिल्क की भिन्न-भिन्न क्वालिटी की बनती है।
इनके डिजाइन प्रायः बुनाई में ही बनते हैं । डिजाइन बुनाई के सिल्क धागे पहले ही रंग लिए जाते हैं। कपड़े में बनाए जाने वाले डिजाईनों को अलग से बना कर रखा जाता है और फिर उसी के अनुसार वीविंग में वह डिजाइनर आते हैं।
सिल्क के धागे पहले हल्के रंग में, फिर उससे गहरे रंग में और फिर से गाड़े रंग में कई कई बार बांधकर रंगते हैं और उसके उपरांत पूर्व योजना के अनुसार उन धागो का प्रयोग किया जाता है।
इस प्रकार प्लेन व रंगे धागों को परस्पर बुनने के लिए बहुत सावधानी का प्रयोग करना होता है। इससे टेंपल (Tample design), चिड़िया, मोर, हाथी, टोकरी आदि डिजाइन का प्रायः प्रयोग करते हैं।
ये वस्त्र काठियावाड़ गुजरात के अलावा मुंबई, सूरत तथा अहमदाबाद में भी बनने लगी है। प्रायः इन वस्त्रों में तथा डिजाइनों में लाल, पीले, हरे रंगों का प्रयोग तथा उनका मिश्रित रूप में प्रयोग होता है।
8. बांधनी ( Tie and Die) :-- 🐣🐣
बांधनी यह स्टाइल राजस्थान, गुजरात, काठियावाड़ आदि राज्यों का प्रसिद्ध व चहेता स्टाइल है। वस्त्रों में जैसा भी डिजाइन बनाना हो, वैसा ही उस पर बना कर उसमें डालें, चावल तथा अन्य दानो को बांधकर फिर उनको रंगा जाता है।
ये वस्त्र 3-3 या कई बार चार रंगों के भी होते हैं। सुहागिनों के लिए मंगलमयी तथा सौभाग्य सूचक माने जाते हैं। यह रंग बिरंगे रंगों से वस्त्र उल्लास व तरुणाई के प्रतीक समझी जाते हैं।
गुजरात व राजस्थान की बांधने वाली स्त्रियां बिना डिजाइन छापे की डिजाइन को बांधकर बना लेती हैं। यह भी कई-कई रंगों में रंगा जाता है पटोला और बांधनी में अंतर यह है कि इसमें कपड़े को बांधकर फिर रंगा जाता है।
पटोला के अनुसार इसमें भी पहले हल्के रंग में रंगते हैं, फिर उससे गहरे में तथा फिर और गहरे रंग में रंगते हैं। बांधने का काम धागों से करते हैं कई बार उन बंधे हुए धागे पर मोम लगा देते हैं ।
ताकि उस हिस्से पर गहरा रंग ना चढ़ाने पाए। इस बंधनी क्रिया में परंपरागत नमूने जैसे नतर्कि, पशु-पक्षी, फूल आदि तथा बेल-बूटे कई-कई रंगों में रंग कर बनाए जाते हैं। कुछ रंगने वालों की कार्यकुशलता ऐसे भी हैं कि एक ही वस्त्र के दोनों तरफ, दो प्रकार के नमूने को रंग कर तैयार करते थे, जिसे देखकर कलाकार की कला की प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जा सकता है।
9. कलम दार या वाटिका कला:-🐋🐋
वस्त्रों पर रंगाई का काम हाथ से या ब्रश की सहायता से पेंट के द्वारा डिजायन तैयार करते थे। इनमें डिजाइन के जो हिस्से रंग से नहीं रंगना चाहते थे उन पर पिघला मोम लगा देते थे। और जहां मोम नहीं होता था वही हिस्सा रंग में रंगा जाता था।
और जिस पर मोम होता था वह वहां रंग नहीं चढ़ता था। इसी कला को आजकल वाटिक कला के नाम से पुकारते हैं। इस तरह की रंगाई में दृश्यों को, पौराणिक कथाओं को माध्यम बनाया जाता था अथवा बेल, बूटे, पौधे, गमले भी बनाकर उन्हें मूल ( Original) रंगों के समान सजाया जाता है ।
भारत के पारंपरिक वस्त्रों के पश्चात अब भारत की पारंपरिक कशीदाकारी (Embroiderery) के विषय में भी जानना आवश्यक है।
धन्यवाद 🙏
Stains and its Removal ( दाग-धब्बे छुड़ाना)
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